Monday, August 7, 2023

जैन सम्राट खारवेल

 जैन सम्राट खारवेल

  भारत के इतिहास में कई ब्लैक होल हैं. कई राजा-महाराजाओं और विद्वानों को भी हम समय की बोतल में बंद होने के कारण नहीं जानते। कई राजा, हालांकि उनके इतिहास का पता लगाया जा सकता है, केवल इतिहासकारों की उदासीनता के कारण जनता के लिए अज्ञात बने हुए हैं। चाहे वह भारत के उत्तर पूर्वी राज्य हों, कश्मीर, लद्दाख, उनके प्राचीन से मध्यकालीन इतिहास को मुख्यधारा के इतिहासकारों ने नजरअंदाज कर दिया है और लोगों को इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। दरअसल, देश का इतिहास प्रत्येक राज्य के इतिहास, उसकी राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक घटनाओं से बनता है। हमें याद रखना चाहिए कि इससे राष्ट्रीय चेतना का विस्तार करने में भी मदद मिलती है। लेकिन दुर्भाग्य से हमारा इतिहास अभी इतना गहरा नहीं है. हम देखेंगे कि धार्मिक, जातीय और प्रांतीय पहचानों का इस पर बड़ा प्रभाव पड़ता है;

लेकिन हमें यह एहसास होना चाहिए कि इससे हम क्या खोते हैं। उदाहरण के लिए, हम इस इतिहास को नहीं जानते कि आठवीं सदी के कश्मीर के सम्राट ललितादित्य ने कैसे तुर्किस्तान तक अपना साम्राज्य बढ़ाया और चीन और तिब्बत पर विजय प्राप्त की। जनरल जोरावर सिंह, जिन्होंने 1836 में लद्दाख पर विजय प्राप्त की और उसे कश्मीर में मिला लिया, मगर यह वाकया हमारे इतिहास में शामिल नहीं हैं। कुमारपाल, वह शक्तिशाली सम्राट, जिसने सबसे पहले आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट किए गए सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार किया और बाद में जैन धर्म में परिवर्तित हो गया, उपेक्षित है। ये बहुत कम उदाहरण थे; परन्तु दुर्भाग्य से यह कहना पड़ेगा कि धार्मिक, प्रान्तीय तथा सामाजिक इतिहासकारों ने इतिहास की अक्षम्य क्षति की है।

जानकारी कहीं उपलब्ध न होने के कारण अज्ञात रहने वाले राजा-महाराजाओं की सूची बहुत लंबी होगी। कुछ राजाओं के बारे में हमें सिक्कों और शिलालेखों से ही पता चलता है। हम उनकी उपलब्धियों और उस समय में उन्होंने क्या योगदान दिया, यह कभी नहीं समझ पाएंगे। हम इस तथ्य को समझ सकते हैं कि कोई व्यक्ति अज्ञात रहता है क्योंकि जानकारी उपलब्ध नहीं होती है; परंतु धार्मिक-सांप्रदायिक कारणों से जानकारी उपलब्ध होने पर भी कोई प्रयास न करना दोष है। इसीलिए मौर्य सम्राट अशोक के पौत्र जैन सम्राट सम्प्रति या सम्राट कुमारपाल कभी भी इतिहासकारों की सूची में नहीं आते।

 

एक और महत्वपूर्ण सम्राट है जो केवल शिलालेखों से ज्ञात होता है और वह है कलिंग सम्राट खारवेल। हालाँकि इतिहास में उन्हें अपने शासनकाल की महत्वपूर्ण घटनाओं को अपने शिलालेखों में उकेरने के लिए जाना जाता है, लेकिन किसी भी समकालीन स्रोत, वैदिक, हिंदू या जैन, में उनका ज़रा भी उल्लेख नहीं मिलता है; लेकिन खारवेल द्वारा स्वयं उड़ीसा में उदयगिरि की हाथीगुम्फा गुफाओं में खुदवाया गया 17 पंक्तियों का शिलालेख उसके शासनकाल की महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं की जानकारी देता है। इस पर शोध करने से इतिहास के एक अज्ञात समय को जानने में मदद मिलेगी; लेकिन ऐसे कोई खास प्रयास नहीं किये गये.

हालाँकि शिलालेख में कोई संवत उत्कीर्ण नहीं है और शिलालेख के कुछ शब्द और वाक्य समय कि धारा में बहते टूटे हुए हैं, इसलिए सटीक तारीख निर्धारित करना मुश्किल है, लेकिन चूंकि उस समय के राजाओं के नाम शिलालेख में हैं, इसलिए हम निश्चित रूप से पता लगा सकते हैं खारवेल और उसके युग के बारे में जानकारी।

इसापूर्व दूसरी शताब्दी में चेट राजवंश के सम्राट खारवेल कलिंग के अधीन सत्ता में आया। यह वंश स्वयं को महामेघवाहन भी कहलाता था। जब मौर्य सम्राट बृहद्रथ कि हत्या कर पुष्यमित्र श्रृंग ने मगध की सत्ता हथिया ली। इसी समय खारवेल ने कलिंग को पुनः स्वतंत्र कर लिया। पहले उनका चेट वंश मौर्यों का मांडलिक रहा करता था। यह शिलालेख णमोकार मंत्र से शुरू होता है, जो जैन धर्म में अत्यधिक पूजनीय है, और इस मंत्र की प्राचीनता का यह एक अभिलेखीय प्रमाण है। इतना ही नहीं, बल्कि अगर हमारे देश का नाम 'भारत' सबसे पहले आता है तो वह इसी शिलालेख में है। उस लिहाज से भी इस शिलालेख का ऐतिहासिक महत्व बहुत अधिक है।

 

खारवेल एक सहिष्णु एवं सहिष्णु राजा था। वह चौबीस साल की उम्र में सत्ता में आए। इसके बाद उन्होंने तुरंत सार्वजनिक कार्यों और इतिहासिक वास्तुओन्का मरम्मत का काम शुरू कर दिया। उन्होंने उस समय के जैनेतर धर्मों के पूजा स्थलों और उपासना स्थलों के निर्माण में भी उदारतापूर्वक मदद की। सत्ता मे आने के दूसरे वर्ष में उसने वैनगंगा के आसपास के असिक प्रांत पर आक्रमण किया, जिस पर सातवाहनों का शासन था। सातकर्णी और खारवेल के बीच एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए और बदले में खारवेल को युद्धखर्च के रूप में हाथी, घोड़े और रथ प्राप्त हुए। उसने रथिक और भोजक गणराज्यों को भी हराया। वह एक योद्धा होने के साथ-साथ उत्सव संगीत और नृत्य के भी शौकीन थे। इकतीस साल की उम्र में उनकी पत्नी से धूसी नाम का एक बेटा हुआ।

अगले ही वर्ष उन्होंने राजगृह की ओर प्रस्थान किया। वहां से डेमेट्रियस (प्रथम) यवन आक्रमणकारी को हराकर मथुरा चला गया। चूंकि इसका समय निश्चित है, इसलिए खारवेल का समय भी निश्चित करने में मदद मिलती है। सत्ता में आने के बारह साल बाद, उसने मगध पर आक्रमण किया और पाटलिपुत्र के राजा बहसतिमित (बृहस्पतिमित्र) को हरा दिया। बहसातिमित मगध के राजा पुष्यमित्र श्रृंग (मूल प्राकृत नाम-पुसमित सुग) का वैकल्पिक नाम और उसी काल का राजा माना जाता है। चूंकि पुष्यमित्र श्रृंग उसी समय पाटलिपुत्र से शासन कर रहा था, इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं है कि बहसतिमित और वह एक ही थे। यह जानकारी मगध के मौर्योत्तर इतिहास पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालती है।

इस सवारी में खारवेल की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह थी कि तीन सौ साल पहले, नंद राजाओं ने कलिंग को हराया और वहां ऋषभनाथ (अग्रजिन) की प्रतिमा को पाटलिपुत्र ले गए, उसे सम्मान के साथ कलिंग वापस लाया गया। उस समय कलिंग साम्राज्य ओडिशा, आंध्र, विदर्भ के साथ-साथ मगध के कुछ हिस्सों तक फैला हुआ था। उसने विद्वानों को अपने राज्य में शरण दी। जैन होने के बावजूद वे अन्य धर्मों का भी समान आदर करते थे। यह जानकारी शिलालेख में दर्ज है।

यह शिलालेख ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के इतिहास पर कुछ प्रकाश डालता है और हमारी कई गलतफहमियों को दूर करने में मदद करता है; लेकिन दुर्भाग्य से इसकी उपेक्षा की गई है। इसके अलावा, अक्सर यह संदेह होता है कि शिलालेख का वाचन भी जानबूझकर दोषपूर्ण तरीके से किया गया है।

 

अगर खारवेल के इतिहास को गहराई से खोजा जाए तो यह इतिहास की कई कमियों को भरने में काफी मदद करेगा। पुष्यमित्र श्रृंग, सातवाहन, विदेशी आक्रमण और संपूर्ण तत्कालीन इतिहास को संशोधित करना होगा और इतिहास की समयरेखा को कम से कम सुसंगत बनाना होगा।

अन्यथा, जैसा कि पहले भी मै लिख चुका हुं, भविष्य में इतिहास की केवल नीरस एवं इकतरफा ‘वैदिक’ दृष्टि ही रहेगी और इतिहास द्वारा छोड़े गए पदचिह्न मिट जायेंगे और एक दिन भुला दिये जायेंगे। यह इतिहास की एक अक्षम्य क्षति होगी। हमें इस से बचना होगा।

-संजय सोनवणी

 

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