१.
हिमालय
की पर्वतराजी. कैमरा स्पैन होते होते कैलाश परबत की चोटीपर ध्यानस्थ
बैठे, बर्फ से लदे ऋषभनाथ पर झुम इन.
कैमरा
उनके उपर से हट कर उसी परबत की चट्टान पर जहां दो युवा, भरत और बाहुबली, चढ रहे हैं. एक
दुसरे की तरफ गुस्से से, विद्वेष से देख रहे हैं.
भरत के
पैर के नीचे के पत्थर फिसलते है....उसका एक हाथ भी छूट जाता हैं.
भरत स्थिर होने के प्रयास करता हैं.
बाहुबली
की तरफ अपना हाथ बढाता हैं...पर बाहुबली उपर चढने मे व्यस्त हो जाता हैं.
भरत जैसे
तैसे संभालता हैं और दोगुनी तेजी से उपर कि तरफ लपकने लगता हैं.
दोनो हांफते
हुए एक ही समय चोटी पर आ जाते हैं.
एक दुसरे
पर टूट पडने के पैंतरे में खडे हो जाते हैं.
कट
ऋषभनाथ
आंखे खोलते हैं. देखते हैं. शरीर पर जमा बर्फ झटकते
हैं और कहते हैं...
ऋषभनाथ- मेरे बच्चे आपस में अच्छा प्यार जता रहे हैं.
(दोनो एक दुसरे से दूर होते हैं, मगर भाव नहीं बदलता. दोनो अपने पिता की ओर देखते है. विनम्रतापुर्वक
झूक जाते हैं
भरत- आप कि तपस्या में बाधा डालने के लिये क्षमा. मगर एक समस्या
हैं जिसका निर्णय आप ही को करना हैं. आप ही इस संसार के पहले तीर्थंकर हो जिन्होने
इस धरती को सभ्यता से परिचित किया. नियम बनाए. मगर यह मेरा भाई बाहुबली उन नियमों को
धुत्कार रहा हैं. मं यह सहन नहीं कर सकता.
बाहुबली- यह मेरा बडा भाई हैं...इसने इस भुमी के राजाओं को पराजित
किया. यह अपने आप को चक्रवर्ती मानता हैं और मुंझसे भी कहता हैं कि मैं उसकी सार्वभौमता
मान लुं. यह नहीं हो सकता. मैं इससे लडाई के मैदान में खडा कर सकता हुं. (भरत कि तरफ
देखता हैं) भरत, दिखा देता तुझे युद्ध में कि कौन
चक्रवर्ती हैं. (ऋषभनाथ कि ओर देखकर) मगर मैं भाई से लडना नहीं चाहता. आप ही हमारा
निर्णय करे...
ऋषभनाथ- मैं संसार की मोहमाया छोडकर यहां आया हुं अपने आप पर
विजय पाने. यह "मैं" भी मैं त्यागना चाहता हूं. आप गलत जगह पर आये हैं. अपनी
समस्या का समाधान आप को ही ढुंढना हैं.
(अपनी जगह से उठते हैं...आगे आते हैं...)
चक्रवर्ती...सार्वभौमता यह शब्द मैंने ही दिये थे. समाज को एक
अव्यवस्था से दुसरी व्यवस्था की ओर लाना आसान नहीं था. टोलियों में बटे वहशी जानवर जैसे लोगो को इन्सान बनाना आसान नहीं था. अब देख रहां हुं व्यवस्था मे
भी अब अव्यवस्था पनप रही हैं...वही वहशी पन जग रहा हैं. आप दोनों को पता ही नहीं कि
किस स्थिती से हम उभरे और इन्सान बने. यह व्यवस्था क्यों बनाई मैने. आये ही हो तो समझो.
समस्या का हल समस्या में ही होता हैं.
(डिसोल्व....दृष्य शुरु....फिर आवाज जैसे दूर किसी गुंफा से
आती हैं....इसी के साथ कै दृष्य एक के बाद एक ओपन होते हैं और व्हाइसओव्हर चलता ही
रहता हैं....
एक ऐसा जमाना था वन्य समाज निवास करता था इस धरती पर. टोलियों
में बटा, बिहडों-अरण्यों और पहाडों में निवास
करता घुमंतू समाज...आपस में लडता झगडता...झोपडे या गुंफाओं मे रहता...
प्रकृती के तांडव को चुपचाप सहता...
हर टोली का मुखिया...उसकी मर्जी संभालना सभी का कर्तव्य...औरतों
का भी...
उसकी नजर गई वह औरत उसकी, भले वह उससे खून क नाता भी क्यों न रखती हो....
टोलियां अनाज और चारागाहों की तलाश में भेड-बकरिया और गाय-बैलों
के साथ घुमते रहते...टोलियां आमने सामने आती तो लडाइयां अनिवार्य हो जाती. वह्शी पन
से लडी जाती. औरतों - जानवरों की लुटपाट मचती.
हर टोली के अपने अपने गणचिन्ह थे. देवताएं थी. पूजापाठ के अपने
अपने तरीके हुआ करते थे. मगर कोई धर्म नहीं था. कोई विचार नहीं था.
कोई व्यवस्था नहीं थी.
(कैमरा इस दृश्यों को डोसोल्व करते पैन होता हुआ शरयू नदी को
लांघकर एक नागरी बस्ती पर स्थिर होता हैं. वहां की गतीविधियों की झलके दिखाई देती हैं
व्हाइसओव्हर चलता ही रहता है.)
शरयु के किनारे बसी
एक शक्तीशाली जमात थी इक्ष्वाकू. हमारी उस बस्ती का नाम था अयोध्या. यह वैसे तत्कालीक
बस्ती थी. चारा खत्यम हुआ तो हमें नदी के उपरी हिस्से की तरफ बढना पडता था. हम वापिस
आते मगर स्थिती सामान्य होने के बाद.
मैं इसी जमात के मुखिया नाभी का एक पुत्र था. मेंरे सीने पर
पैदाइशी ऋषभ का पवित्र चिन्ह होने की वजह से मेंरा नाम ऋषभनाथ रखा गया था. मैं नाभी
का और मेरी मं मरुदेवी का सबसे प्रिय पुत्र था.
बस्ती के सब मुंझसे लाड-प्यार करते थे.
साथीयों के साथ मुंझे भी शस्त्र चलाने, कुश्ती
लडने, घुडसवारी करने में प्रवीण बनाया गया.
मेरा कोई सानी नही था. (यथोचित दृष्य झलकों में)
दृष्य बदल...
युवा ऋषभनाथ अपनी मां मरुदेवी के साथ नदी किनारे टहल रहा हैं.
दोनो प्रसन्न मनोवस्थ में हैं. यकायक मरुदेवी झुकती हैं और बडी सींप उठा लेती हैं.
भावविभोर हो उस तरफ फिर ऋषभनाथ की तरफ देखती हैं.
मरुदेवी- तू जब मेरे पेट में था तब मुंझे कई अजीब अजीब सपने
आते थे.
ऋषभ- क्या वे डरावने सपने थे मां?
मरुदेवी- ना. अद्भूत सपने थे वे. कभी सोचा ही न था ऐसे...किसी
को बता देती त हंसते...बडे अजीब सपने...
ऋषभ- मां...बताओ ना...
मरुदेवी- सपने याद थोडे ही रहा करते हैं? इतना ही याद हैं कि कभी सपने में हाथी नृत्य करते दिखाई देते तो
कभी कमलों से भरा तालाब. कभी यह ऐसी..मगर बहोत बडी चकाहौंध कर देनेवाली सींपे...जैसे
चांदी की बनी हो...एक सपने में तो एक बडे ऋषभ ने मेंरे मुंह में प्रवेश किया और मुंझ
में विलीन हो गया. तू जनमा तो तेरे वक्षस्थल पर यह ऋषभ का चिन्ह. हैं न अद्भुत? (हसती हैं) यह सिंपे देखी तो आया याद कुछ कुछ...
ऋषभ- तो तेरा सपना सच निकला मां. मैं हुं ही ऋषभनाथ... देवताएं ही सपने दिखाती हैं, हां ना?
(मरुदेवी नदी की ओर देखती हैं. आसमां में बादल घिर आते दिखाई
देते हैं.)
मरुदेवी- देवताएं ही नहीं...शैतान भी...मगर वे बडे डरावने सपने
दिखाते हैं...चल...बादल घिर आये हैं.
(बुंदाबांदी शुरु होती हैं. दोनो बस्ती की ओर तेजी से चलना शुरु
कर देते हैं.
कैमरा आस्मान पर. अंधेरा. बिजलियां चमकती हैं, बादल गरजते हैं. कैमरा नदी किनारे स्थित अरण्यपर. एक टोली हथियार
लिये तेजी से बढ रहीं हैं. )
भद्रबाहू- आज अयोध्या नहीं बच सकती. हम ऐसा अचानक हमला करेंगे
यह उन्होने सोचा भी न होगा.
कराल- हां...सच हैं. माहौल हमारे पक्ष में हैं. हम पहले उनका
गोधन लुट लेते हैं...
भद्रबाहू- सावधानी से...यह लोग बडे ताकतवर हैं...
कराल- हम भी कम नही...दिखा देते हैं उन्हे शरयु का किनारा किसकी
मिल्कियत हैं...खदेड देंगे उन्हे...
(झुंड आगे बढती रहती हैं.
मैदान पर बनी बस्ती और उसे घेरे तट. तटपर रक्षक हैं मगर तेज
बारीश की वजह से असावधान हैं.
जैसे ही बिजली कडकती हैं...एक रक्षक को बन से बाहर आती झुंड
दिखाई देती हैं. वह जोर से चिल्लाता हैं-
रक्षक- सावधान...कोई हमला आ रहा हैं...
(रक्षक भागदौड शुरु करते हैं. कुछ रक्षक सबको जगाने नगाडे बजाना शुरु कर देते हैं, पर व्यर्थ. फिर एक रक्षक नीचे उतरकर हर दरवाजे पर जोर से दस्तक
देते नाभी के बडे घर के सामने आकर चिल्लाना शुरु कर देता हैं.
नाभी और ऋषभदेव शोर सुनते ही उठते हैं और हथियार लिये बाहर की
और लपकते हैं.
तब तक बहोत सारे योद्धा जमा हुए हैं...)
नाभी- क्या हुआ? कौन
हमपर हमला करने का साहस कर रहा हैं? चलो बाहर..देखते हैं...
(वे आगे बढते ही हैं तभी दुष्मन के कुछ लोग अंदर घुसते हैं.
नाभी आज्ञा देता हैं...)
नाभी- मारो इनको...एक भी जिंदा ना बचने पाये...
(सारे दुष्मन की ओर झपट पडते हैं. धमासान लडाई शुरु हो जाती
हैं. कई मारकाट के क्लोज दृष्य. ऋषभनाथ कई हमलावरों ओ मार गिराता हैं. नाभी जोर-शोर
से दुष्मन पर टुट पडता हैं.
महिलाएं भी हथियार उठाकर बाहर आती हैं.
दुष्मन पीछे हटते हुए तट के बाहर के मैदान पर आता हैं और सब
मिलकर नई तैय्यारी के साथ नाभी के लोगों पर वहशी की तराह टुट पडते हैं. भद्रबाहू चिल्लाता
हैं...)
भद्रबाहू- तुम लोग जिंदा नही बचोगे नाभी...अब यह इलाका हमारा
होगा. यदि हमारी गुलामी स्विकार करोगे तोही बच पाओगे...देख हम कितने हैं...
नाभी- (गरजते बादलों की आवाज के बीच) इतने नहीं रहोगे अब...
( और सामने आये दुष्मन की गर्दन काट कर आगे बढता हैं...ऋषभ नाभी
के पास मारकाट करते आता हैं.)
ऋषभ- पिताजी, इन्हे
शरयू की ओर धकेलते जाते हैं...हमारे आधे लोगों को नदी की ओर जाने दो और यह जैसे ही
पीछा करेंगे उन्हे बायी ओर खिसककर वापिस हमारे पास आने दो. हम इन्हे शरयू की बाढ में
धकेल देंगे...
(लोंग शोट. लडाई जारी हैं. शरयू का पात्र बाढ से भरा हैं. दायी
बायी तरफ चट्टाने हैं. नाभी नई रचना कर आधे लोग ढलान से पात्र कि ओर जाने को कहता हैं.
भद्रबाहू की समझ में यह चाल नहीं आती. अंधेरे की वजह से दिशाओं
का भी ज्ञान नहीं. वह चिल्लाता हैं...)
भद्रबाहू- पीछा करो उनका....
(ऋषभनाथ उसके गिर्द की भीड को चिरता आगे लपककर उसे ललकारता हैं)
ऋषभ- उनका पीछा बाद में भद्रबाहू...पहले हमसे निपटना...(तेजी
से अपने शस्त्र का घाव उसपर करता हैं. भद्रबाहू वह घाव अपनी तलवार पर ले लेता हैं)
भद्रबाहू- बच्चे हो...मारे जाओगे...
(१. ऋषभनाथ उसका घाव अपने शस्त्रपर लेते हुए लडना शुरु करता
हैं. भद्रबाहू के रक्षक भी ऋषभ पर टुट पडते है. ऋषभनाथ कुशलतापुर्वक सब का प्रतिकार
कर रहा हैं.
२. नाभी के लोगों का पीछा करने वाले यकायक अपने आपको गलत जगह
पर पाते हैं. आगे रौद्र नदी...
पीछे मुडते हैं तो घिरे पाते हैं. वे लडकर पीछे आना चाहते हैं
मगर यहां लडाई विषम हो जाती हैं.
३. ऋषभनाथ अचानक बाएं पाव से किचड उछालता हैं. भद्रबाहू की आंखोंपर
किचड आने की वजह से वह बौखला जाता हैं. ऋषभनाथ उसे अपनी एक लात से गिराता हैं और उसके
सीने पर बैठ तरवार की नोक उसकी गले से भिडा
कहता हैं-)
ऋषभ- तुझे दिखेगा नहीं मगर तेरे आधे लोग शरयू में डुब मर रहे
हैं. बचे हुए उसी रास्ते जा रहे हैं. हम इक्ष्वाकू हैं और यह बस्ती अयोध्या हैं...हमे
कोई हरा नहीं सकता...असावधानी में भी नहीं...
भद्रबाहू- तुम्हे हम नहीं छोडेंगे कायर...
(ऋषभनाथ हंसता हैं.)
ऋषभ- भद्रबाहू, तुम्हे
सजा तो पिताजी देंगे. अब तुम हमारे बंदी हो... (अपने लोगों को) इसे बस्ती में ले जाना
और खंभे से बांधे रखना...
(तभी यकायक भद्रबाहू उछलता हैं. ऋषभनाथ को धकेल देता हैं और
घाव लगाता हैं.
ऋषभ बैठे बैठेही वह घाव झेल लेता हैं और खडा होते होते इस कदर
तरवार चलाता हैं की भद्रबाहू का मस्तक कटकर नीचे गिरता हैं.)
ऋषभ- (आस्मान की तरफ देखकर) इसे मरने की जल्दी थी...
(ऋषभनाथ देखता हैं....अधिकांश दुष्मन बाढ में बह गये हैं और बचे मारे जा रहे हैं.
नाभी पिछे आता हैं. पानी निबटता हैं. )
नाभी- हम हमेशा की तरह जीत गये हैं...(मुडकर) चलो..चले...मगर
आज की रात सब सावधान रहना...
(सारे बस्ती की तरफ मुडते हैं.
ऋषभनाथ सोच में डुबा हैं. बरसते आस्मान की ओर देखता हैं, बिजली कडकती हैं.)
३.
धूप खिली हैं. बस्ती के पास के अरण्य में ऋषभ और मरुदेवी फल
चुन रहे हैं.
ऋषभ- मां, जल्द ही यहां
के फल खत्म हो जायेंगे.
मरुदेवी- हां...हर वर्ष की तरह....फिर बहारे खिलेंगी....
ऋषभ- आपस में ही सारी टोलियां लडती रही तो एक
दिन धरती से सारे लोग भी खत्म हो जायेंगे...
मरुदेवी- इसीलिये सब को बलशाली होना आवश्यक हैं. जो बलवान हैं
वही इस धरती पर टिका रहेगा...
ऋषभ- क्या बलशाली भी कभी नहीं हार सकते? भद्रबाहु कि टोली कम बलशाली नहीं थी...ह्म बुद्धीशाली थे इसीलिये
जित पाये. कोई हमसे चतुर निकले तो हमारा बल किस काम आयेगा?
मरुदेवी- संसार का यही नियम हैं...
ऋषभ- मां...कोई व्यवस्था होनी चाहिये...संसार के यह मौजुदा नियम
बदलने होगे...
(मरुदेवी प्रश्नपुर्वक उसे देख ही रही हैं तो बस्ती से शोर आना
शुरु होता हैं. ऋषह और मरुदेवी उस तरफ देखते हैं.)
मरुदेवी- अब क्या हुआ...यह शोर कैसे? चलो ...देखते हैं...
(दोनो बस्ती की ओर तेजी से चलना शुरु करते हैं)
४.
बस्ती का आंतरदृष्य
नाभी उंचे स्थानपर आगबबुला हो खडा हैं.
मैदान में सैंकडो लोग खडे हैं और
"दुष्म्नों को खत्म करो..इक्ष्वाकु जमात के
सामने कोई बच नहीं सकता..."
ऐसा एक साथ चिल्ला रहे हैं.
नाभी- (हाथ उठाकर शांती का इशारा करते हुए) हम अब दुष्मन के
हमले का इंतजार नहीं करेंगे. हम ही उनपर हमला बोल देंगे. भद्रबाहू तो मारा गया, उन्के मित्र भी वही राह चलेंगे...तैय्यारी करो...हम कल ही निकल
पडेंगे....पुरी तैय्यारी के साथ...
(लोग खुशी से चिल्लाते हैं..."हां यही सही होगा...चलो---निकलते
हैं...अभी क्यों नहीं?" वगैरा आवाजे आती हैं.
कैमरा ऋषभनाथ पर. वह विषाद से भरा तट के द्वार पर खडा हैं. मां
की तरफ देखता हैं. मरुदेवी गंभीर हैं. ऋषभनाथ अपने पिताकी ओर भीड से रास्ता बनाते तेजी
से चलने लगता हैं.
तबतक नाभी अपने निवास की ओर चल पडता हैं. ऋषभनाथ उन्के पीछे
पीछे भागता हैं.)
५.
नाभी के निवास का आंतरदृष्य.
नाभी अपने हथियार चुन रहा है.
पदचाप और हांफने की आवाज सुनकर पीछे देखता हैं.
नाभी- ऋषभनाथ तुम? इतना
हंगामा हो रहा था...कहां थे?
ऋषभ- मां के साथ फल चुनने गया था. हंगामा सुनकर भागे भागे आया.
आपका ऐलान सुना...क्या हुआ?
नाभी- भद्रबाहु की टोली
कि कुछ मित्र टोलिया हम पर हमला करनेवाली हैं. बदला लेने. वार्ता सच हैं. इससे पहले
कि अब वे हमला करें हम ही उनको जमींदोस्त कर देंगे...तुम भी तैयार रहना...कल सुबह होते
ही हम निकल रहे हैं.
ऋषभ- क्या हम ऐसे ही लडते रहेंगे? कोई सुलह नहीं हो सकती?
नाभी- सुलह? ये
क्या बकवास कर रहे हो? हमारी दुनिया में कोई सुलह नही होती. मरो
या मारो...कायर ही सुलह की बात करते हैं जो कभी होती नहीं.
ऋषभ- सुलह कायरता नहीं होती. वीर ही सुलह करते हैं.
नाभी- (हंसता हैं, फि
अचानक गुस्से में...) ऐसा हैं तो जाओ...दुष्मन के गुलाम बनो. यहां सुलह नहीं होती...ना
ही सुलह की बात करनेवालों को बक्षा जाता हैं. हम पर जो बुरी नजर डालता हैं,
हम उनकी आंखे नोच लेते हैं.
ऋषभ- आप को पता हैं पिताजी, ना मैं गुलाम बनुंगा ना मैं किसी को गुलाम बनाना चाहुंगा. और कायर तो मैं हर्गिज
नहीं. मगर लडाइयां समस्याओं का हल नहीं होती.
नाभी- कल तुम हमारे साथ आ रहे हो या नहीं?
ऋषभ- हां...आउंगा...
(पलटकर चल पडता हैं. असंमजस में नाभी खडा हैं.)
६.
(ऋषभनाथ की आवाज व्हाइसओव्हर में और साथ हे चलने वाले अनुरुप
दृष्य.
ऋषभनाथ- हम दुसरे दिन सुबह निकले. स्त्री-बच्चों की सुरक्षा
के लिये कुछ जवान पीछे छोडकर.
दुष्मन की बस्तीयों तक पहुंचने के लिये हमें बिहडों से, अरण्यों से गुजरना पडा.
नदीयां लांघनी पडी.
हम पहली बस्ती तक पहुंचे...वहां औरतों-बच्चों के सिवा कोई न
था. आदमी लोग शायद भाग निकले थे!
हमारे लोगों ने उन महिलाओं पर अत्याचार किये.
मुंझे इस हैवानियत पर गुस्सा आ रहा था.
मगर क्या करता?
पिडीत औरतों ने आखिर बताया की उनके मर्द किस दिशा में गये.
पीछा शुरु हुआ.
मैं बेचैन था. मैनी पिताजी से एक विश्राम पर कहा...
(दृष्य ६ अ.)
ऋषभनाथ- पिताजी, ऐसाही
हमला हमारी बस्ती पर हुआ तो? मैं पिछे जाता हुं...मुंझे मां की
चिंता हो रही हैं.
नाभी- कोई हिंमत नही कर सकता अयोध्या पर हमला करने की....दुष्मन
का पीछा करो...वह डरकर भाग रहा हैं. उसको खत्म करो...समझे?
व्हाइसओव्हर- और पिताजी सो गये...एक पेड के तले. दुसरे दिन दुष्मन
का पीछा फिर शुरु हुआ. हम पहाडी इलाके में आ गये थे...अयोध्या से काफी दूर. वे संकरी
खाईया जैसे ही हमारे रास्ते में आई और अचानक दुष्मन ने पहाडी पर से हम पर हमला शुरु
किया...मैं समझ चुका यह दुष्मन बुद्धीशाली था.
हम लडाई मे जैसे तैसी जुट तो गये मगर सामना अब बराबरी का भी
नहीं रहां था.
हम हार रहे थे.
और उधर दुष्मन की और एक टोली ....
७.
अयोध्या.
स्लो मोशन
बच्चे खेल रहे हैं...किलकारिया मार रहे है...
औरते घरेलु कामों में व्यस्त है
तटपर कुछ योद्धा निगरानी कर रहे है.
एक वहशी टोली क झुंड तेजी से अयोध्या की ओर बढ रहा हैं.
तटपर खडे योद्धा तीरों ए गिराये जाते हैं.
झुंड बस्ती में घुसती हैं. हिंस्त्रता से औरते-बच्चे सबको कैद
कर, घरों को आग लगाकर तेजी से वहां से निकल पडते
हैं.
८.
अ. नाभी और उनके बचे साथी कैद हो एक गुंफा में बंद चुके हैं.
भुखे एवम संत्रस्त सैनिक दयनीय अवस्था में दिख रहे हैं.
नाभी अपने आपपर कुपित हैं.
ऋषभ सोच-विचार में निमग्न हैं.
ब. दुष्मन की टोली की तात्कालिक बस्ती जुलुस मना रही हैं.
मुखिया- (क्लोज अप) रोज हम दस जनों को बली चढाएंगे...देवताएं
संतुष्ट होंगी. हमारी वज्जी जमात आबाद होंगी...
(जमात के लोग खिल्खिलाकर हंसते हैं..)
लोग- नाचों....मौज करो...हमने दुष्मन को हरा दिया हैं.
(एक औरत भागी भागी अरण्य से वहां आती हैं. दयनीय अवस्था. उसे
देखते ही शोर थम जाता हैं. औरत को पास आते ही मुखिया के सामने लाया जाता हैं.)
मुखिया- (गंभीरता से) क्या हुआ?
औरत- हम पर हमला हुआ...इक्ष्वाकू लोगों ने किया...हमपर निर्दयता
से अत्याचार किये....
मुखिया- (क्रोधित. दहाडता हैं) वे अब हमारे कब्जे मे हैं. हम
पुरा बदला लेकर ही रहेंगे...वज्जी औरतों पर कोई हाथ नहीं डाल सकता....
९.
(वक्त- शाम.
अयोध्या की औरते और बच्चे पहाडी इलाके के एक बस्ती में जानवरों
की तरह लाया जाता हैं.
पहरों में उन्हे लकडी की फेंसिंग में उन्हे निर्दयता से बंद
किया जाता हैं. )
मुखिया- अब हमें औरतों की कोई कमी नही होगी...इक्ष्वाकुओं की
शान लुटी जायेगी...हररोज....मौज मनाओ साथियों...
(औरते सिमटकर डरी-सहमी सी बैठती हैं. कुछ रो पडती हैं तो मरुदेवी
चिल्लाती हैं...)
मरुदेवी- डरो मत...याद रहे हम इक्ष्वाकू हैं...सुर्य देवता का
वंश. हम डरते नही. ना मौत से ना पराजय से. हम लडेंगे...यहां से भाग निकलेंगे...
(औरते फिर भी आश्वस्त नहीं होती...बडे बच्चे मगर आवेश में आ
जाते हैं.)
एक लडका- हां मरुदेवी...हम इनसे लडेंगे...
(बाकी बच्चे हामी भरते हैं)
१०.
गुंफा.
नाभी को और उसके साथियों को बेरहमी से पीटा जा रहा हैं.
मुखिया हिंस्त्रता पुर्वक खुन से नहे नाभी की ओर देखता हैं.
मुखिया- नाभी, तुमने
वज्जी औरतों पर अत्याचार किये...तुम्हे आसान मौत नहीं मिलेगी...
(नाभी कुछ कहता नहीं.
ऋषभनाथ एक कोने में बंधा पडा यह दृष्य वेदनापुर्वक देखता हैं.)
नाभी- (अचानक चिल्लाता हैं) मुंझसे बात करो....
मुखिया (मुडकर देखता हैं) कौन हैं यह...लाओ उसे...यह हिंम्मत?
(उसके लोग ऋषभ को घसीटकर ले आते हैं)
मुखिया- (घुरकर देखता हैं) अभी तो बच्चे हो. मैं तुमसे बात करुं? जेता हारे लोगों से बात नहीं किया करते...(अपने लोगों से) मारो
इसे भी....
ऋषभ- (खडे होने की कोशिश करते हुए) मैं इक्ष्वाकू जमात के मुखिया
नाभी का पुत्र सुलह की बात करना चाहता हुं. (उसके लोगों से) रुको...अगर सुलह नहीं होती
तो आप मुंझे मार देना...
मुखिया- यह सुलह क्या होती हैं?
ऋषभ- इस संसार मे हुई तो यह पहली सुलह होगी. एक इतिहास बनेगा
कि हम इन्सान पहली दफा इन्सान बने. बदले की भावना को छोड मित्र बने. हम आपसे मित्रता
की सुलह करना चाहते हैं!
मुखिया- हमारी मित्र टोली के मुखिया भद्रबाहू को और उसकी टोली
का समुची नष्ट करने के बाद? हमारी औरतों पर अत्याचार करने के
बाद? मुर्ख हो.
ऋषभ- भद्रबाहु ने हम पर अचानक बेवजह हमला किया था. उसने पहले
यदि हमले की वजह ऐलान की होती तो शायद हम चर्चा कर बात को हल कर लेते और हल नहीं निकलता
तो लडाई. हमें कुछ तो सभ्यता की आवश्यकता हैं... हमे व्यवस्था की जरुरत हैं. वरना हम
ऐसे ही एक दुसरे को खत्म करते जायेंगे...धरतीपर कोई नहीं बचेगा!
मुखिया- हमारी औरतों पर अत्याचार किये...यह कौनसी सभ्यता थी? मुर्ख समझ रहे हो हमे?
ऋषभ- नहीं...आप वही कर अहे हो जो सबने किया. इक्ष्वाकुओं ने
भी वही किया जो सब करते आये हैं. यह सब गलत हैं. मुर्खता हैं. वज्जी औरतों के साथ जो
हुआ वह लगभग हर टोती की औरतों के साथ होता आया हैं. क्या हम इसे कभी रोक नहीं सकते? यही सिलसिला जारी रखना हैं? देखो...इस युद्ध
में हमने भी हमारे कई साथी गंवाएं हैं. यह युद्ध एक मुर्खता थी. हम मित्रता की सुलह
करते हैं.
मुखिया- तुम सब अब बंदी हो...बंदी अपनी जान बचाने की खातिर कायर
की तरह सुलह की बात करते ही रहते हैं! (हंसता हैं)
ऋषभ- वीर ही सुलह की बात कर सकते हैं...वीर ही शांती ला सकते
हैं.
मुखिया- (हंसकर) तुम कायर हो...अपने बाप की तरह...
ऋषभ- (शांतीपुर्वक) हम इक्ष्वकू आपके मित्र बने रहेंगे. जब भी
आपकी वज्जी जमात किसी संकट में होंगी हम आपकी सहायता करेंगे. आप भी वही करेंगे. हमने
आपको जो क्षती पहुंचाई हैं उसका जमीन और जानवरों के बदले मुआवजा देंगे. आप की स्त्रीयों
का अपमान हुआ...हम उनके पैर पकडकर माफी मांगेंगे और वचन देते हैं कि कभी भी किसी टोली
की औरतों पर अत्याचार नहीं करेंगे. इसके बदले हमें आप को छोडना होगा और सुरक्षित रुप
से अयोध्या तक जाने एना होगा.
मुखिया- मैं ऐसा क्यों करुं? मैं सब को यहीं खरत्म कर सकता हुं!
ऋषभ- अवश्य कर सकते हो. मगर याद रहें की किसी दिन आप की वज्जी
टोली भी खत्म हो सकती हैं. गरुर अच्छा नहीं. हमें एक सभ्यता को कायम करना हैं, वहशियत से इन्सानियत की ओर जाना हैं. यदि तुम यह बात मान लेते
हो तो इन्सान टिका रहेगा...लोग तुम्हे याद रखेंगे कि तुम इन्सानियत के पक्ष में थे.
फैसला तुम्हारा...
(कैमरा मुखिया पर. वह असंमंजस में मगर कहता हैं-)
मुखिया- क्या, शपथ
लोगे?
ऋषभ- हां...शपथ ही नही व्रत...हम दोस्ती बनाए रखेंगे..हर हालात
में. हम सभ्यता का निर्माण करेंगे. इस वहशियत से मूक्त करेंगे.
मुखिया- तुम ऐसी बात कर रहे हो जो हमने कभी सुनी नहीं. यह बात
सच हैं कि हम भी कभी कभी तंग आ जाते हैं इन लगातार लडाइयों से...लगता हैं कभी कि हमारे
निरंतर संघर्ष का कोई अंत हैं या नहीं?
ऋषभ- मैं ऋृषभनाथ रास्ता दिखाउंगा...प्रेम और शांती का...
मुखिया- मगर हमारे लोग मानेंगे नहीं...
ऋषभ- क्यों नहीं मानेंगे समझदारी की बात? बदला ही लेआ हैं तो मुंझसे लो...गुलाम बनाए रखो चाहे उतने समय
तक...मैं आप सब की सेवा करुंगा...कोई भी आदेश को मानने से हिचकिचाहट नहीं करुंगा...हमारा
सुलह कायम ही रहेगा...
नाभी- (कराहते हुए) यह तुम क्या कह रहे हो ऋषभ? इससे तो मर जाना ही बेहतर...
ऋषभ- पिताजी, हमने
वज्जी बस्तीपर हमला करने से पहले ही मित्रता की सुलह कर लेनी चहिये थी. हमारी गलती
का प्रायश्चित मैं भुगतुंगा, मगर अब वज्जी लोगों से इक्ष्वाकू
कदापि नहीं लडेंगे ना वज्जी हम्से.
मुखिया- नाभीराज, ऋषभनाथ
देवों की बानी बोल रहा हैं. सुलह हमे मंजूर हैं. आप सब मुक्त हो.
११.
नाभी अपने लोगों के साथ अयोध्या के तरफ जा रहा हैं.
ऋषभनाथ सोच-विचार में निमग्न.
साथी गुस्से मे, अपमान
की भावना से उत्तेजित मगर विरोध जता नहीं पाते.
एक गुस्से से बोलता हैं...
एक आदमी- हम नामर्द हैं...हम उन वज्जीयों का अब भी बदला ले सकते
हैं.
ऋषभ- (यकायक विचारों की शृंखला टुटती हैं. ) सुनो सब लोग...बदले
से बदला ही जन्म लेता हैं. इस धरतीपर हम सभ्यता की नींव रखेंगे तो हम याद रखे जायेंगे..इन्सानियत
जिंदा रखी इसलिये. बदले की भावना छोड दो...इसमें किसी का भला नहीं. लडाइया तभी आवश्यक
हैं जब हएं अपनी रक्षा करने के अन्य उपाय नजर नहीं आते. किसी पर आक्र्मण करने हमें
किसी बल का उपयोग नहीं करना हैं.
(वह बिना ध्यान दिये आगे बढता हैं. सब उसके पीछे निकलते हैं.)
१२.
रात.
औरते और बच्चे चौकन्ने बैंठे हैं.
पहरा देनेवाले ढीले पड गये हैं.
बडे बच्चे सावधानी से लकडी के फेंस में बडा छेद कर देते हैं.
मरुदेवी सबको इशारा करती हैं.
धीरे धीरे सब फेंस के बाहर आ जंगल की तरफ बढने लगते हैं.
पत्ते-लकडियों की चरमराहट से पहरेदार जाग जाते हैं. यकायक चिल्लाना
शुरु कर देते हैं और पीछा शुरु कर देते हैं.
पुरी टोली जाग चुकी हैं.
मशाले और हथियार लेकर वे भी पीछे में शमिल हो जाते हैं.
अपना पीछा हो रहा हैं यह जान कर मरुदेवी सब को बिखरकर भागने
का आदेश देती हैं...मगर कुछ औरते टोली के हाथ लग जाती हैं. हाथापाई में निर्दयता पुर्वक
उन्हे मार दिया जाता हैं.
अंधेरा और अरण्य में कई दिशा लेने से टोली वालों का पीछा सफल
नहीं होता...वे निराश हो पीछा छोड वापिस मुडते हैं.
१३.
अयोद्या राख का ढेर हैं जब सब वापिस आते हैं. सडी लाशे बिखरी
पडी हैं.
वहां का भयानक दृष्य देख नाभी और साथी गुस्सा और वेदना से पिडीत
हो उठते हैं.
सब- हमारी औरते और बच्चों को किसी ने अगुवा किया हैं....उन्हे
ढुढना होगा...कौन हैं यह दुष्मन?
नाभी- (गुस्से में) पहले ढुंढो कौन दिशा गये हैं सब...कोई तो
निशानी मिलेगी...हम ढुंढेंगे हरामीयों को और ऐसी सजा देंगे की उनके पुरखे भी रोयेंगे...बिलखेंगे...
ऋषभ- (घोडे की लीद और कुछ फटे वस्त्रों के अवशेष देख) वे इस
दिशा में गये हैं. हम हमारी औरतों को छुडायेंगे...
कुछ लोग- तुम तो इनसे भी सुलह कर लोगे...
ऋषभ- मैंने सुलह नहीं की होती तो आज हम यहां नहीं होते. जल्दी
करो- इस दिशा में चलो...
(सब नाभी की ओर देखते हैं. नाभी हां मे सर हिलाता हैं और चल
देता हैं. सब पीछे हो लेते हैं.
अरण्य मे ट्रेल छुट जाता हैं. दिशा का अंदाजा नहीं आता. मगर
कुछ शिकारी, घुमंतू मेषपाल उन्हे दिशा बताये
जाते हैं.
अ.
थकी, घायल औरते-बच्चे अरण्य में इकट्ठा
हो मुश्किल से राह नाप रही हैं.
मरुदेवी खुद घायल हैं.
एक- क्या हम दिशा भटक चुके हैं? हम कभी अयोध्या वापिस नहीं पहुंच पायेंगे...
मरुदेवी- ऐसे ही उत्तर की तरफ चलते रहो...उन्होने पीछा शुरु
किया होगा...मगर एक बार हम शरयु के किनारे पहुंचे की समझो अयोध्या पहुंचे...
(चलना शुरु कर देते हैं. बिलखते नन्हे बच्चे की आवाज जंगल में
गुंजती हैं...
पीछा करने वाले चौकन्ने हो उस दिशा में भागते हैं.
पीछा करने वाले जैसे तैसे भागने वालों तक पहुंच ही रहे हैं
पहाडी पर से नाभी उन्हे देखता हैं.
सारे तेज दौंड लगाते हैं.
घोडों की टापों की आवाज..
कई दृष्य.
अपने लोग आ रहे हैं यह देख औरत-बच्चे आश्वस्त...दुगुना आवेश
से दुष्मन पर टुट पडती हैं.
इक्ष्वाकू लोग पीछा करने वालों पर टुट पडते हैं.
कुछ ही देर में कई मारे जाते है तो बाकी भाग निकलते हैं.
नाभी अपने आधे लोग महिलाओं को सुरक्षित ढंग से वापिस ले जाने
के लिये नियुक्त कर उस टोली के लोगों का पीछा शुरु कर देता हैं.
१४.
गुस्से में आये इक्ष्वाकू लोग उस बस्ती पर हमला बोल देते हैं.
टोली की हार होती हैं.
औरतों को बेइज्जत किया जाता हैं.
नाभी उन्हे रोकता हैं.
बच्चे डरे सहमे बिलख रहे हैं.
घरों को आग लगाई जाती हैं.
मुखिया को कैद कर नाभी के सामने लाया जाता हैं.
ऋषभनाथ वितृष्णा से यह दृष्य देखता रहता हैं.
नाभी- अब तुम सब हमारे गुलाम होंगे. हमारा जला नगर फिर खडा करने
का काम आप लोग करेंगे. बाद में तुम लोगों से क्या सलुक करना हैं...हम तय करेंगे...
(ऋषभनाथ की तरफ देखता हैं)
ऋषभ, मैं इतनी ही क्षमा कर सकता हुं.
यही मेंरी सुलह हैं. मैं इनकी औरतों पर अत्याचार नहीं होने दुंगा यह बचन हैं.
ऋषभ-(खुद ही से) कुछ
तो बदल रहा हैं...
(मुडता हैं और चल पडता हैं.
सारे टोलीवाले औरत-बच्चों के साथ कैद कर डोरी से बांधकर अयोध्या
की तरफ हांके जाते हैं.)
१५.
शाम
पृष्ठभुमीपर अयोध्या का नवनिर्माण जारी है.
नाभी और ऋषभ देखरेख करते टहल रहे हैं.
नाभी- तुम बडे हो गये हो पुत्र. तुम्हारा जन्म हुआ तभी सबको
ज्ञात था कि तुम अलौकिक हो. तुम्हारे सीने पर ऋषभ की प्रतिमा जन्म से ही थी. हमे पता
था कि तुम इक्ष्वाकू कुल का उद्धार करोगे. मगर यह नही पता था कि उद्धार के मायने ऐसे
भी हो सकते है.
ऋषभ- (हंसता हैं.) बह्त कुछ बदलाओं की आवश्यकता हैं पिताजी.
अभी तो शुरुवात हैं. मैं कुछ समय यहा से दुर जाना चाहता हुं. अकेले में ही खुद ही से
संवाद करना चाहता हुं.
नाभी- इससे क्या होगा?
ऋषभ- पिताजी, जीने
के लिये हम या तो शिकार करते हैं या गाय-बैल पालते हैं. अर्ध-घुमंतु हैं हम सब...सारी
टोलिया. हमारे सघर्ष हैं क्योंकि हमारे जीने का कोई ठोस सहारा नहीं. मैं उस सहारे को
ढुंढना चाहता हुं. आप अनुमती दे. मैं जल्दही वापिस आउंगा...
नाभी- अनुमती तो तुम्हारी मां देगी.
ऋषभ- मैं उनसे बात करुंगा...मगर आप...
नाभी- जवान हो... खुद का ध्यान रखना.
(ऋषभ कृतज्ञतापुर्वक नाभी की ओर देखता हैं और अपने निवास की
ओर चलने लगता हैं. गुलाम एक ओर तो निवासी लोग काम खत्म कर लौट रहे हैं.
तभी एक शोर सुनाई देता हैं.
ऋषभ देखता हैं दो युवा आपस में लड अहे हैं...लोग तमाशा देख रहे
हैं. एक लडकी सहमी बाजु में बैठ लडाई देख रही हैं.
ऋषभ भागा वहां जल्दी पहुंचता हैं.
ऋषभ- बंद करो यह लडाई...मुर्खों की तरह क्यों झगड रहे हो?
(वे नहीं रुकते. एक आदमी ऋषभ के पास आता हैं...)
युवक- यह लडकी किस की इस पर झगडा हो रहा हैं...हमेशा की तरह...
(ऋषभ दोनो झगडते युवकों के बीच जा दोनों को रोकता हैं.)
एक युवक- आप बीच में ना पडो. फैसला हम करेंगे...जो जितेगा लड्की
उसकी यही हमारा रिवाज हैं.
दुसरा- यह लडकी मेरी हैं...मेरे बच्चे जनेगी...
(ऋषभ लडकी की ओर देखता हैं और दोनों से पुछ्ता हैं-)
ऋषभ- इस लडकी की राय क्या हैं?
दोनो- मतलब? यह
होती कौन हैं राय देने?
ऋषभ- तुम होते कौन हो उस पर हक जताने वाले?
एक- मैं उसे अपनी साथी बनाना चाह्ता हुं.
दुसरा- मैं भी-
ऋषभ- (लडकी को ) तुम किसे चाहती हो?
(लडकी रोने लगती हैं...इशारा करती ह्हैं एक की तरफ)
लडकी- मैं इसे चाहती हुं.
ऋषभ- फैसला हो चुका....लडकी ने अपनी पसंदगी जाहिर की हैं. अब
सब गौर से सुनो-
आज से नियम होगा कि कोई भी बलपुर्वक किसी स्त्री पर कब्जा नहीं
करेगा. लडकी की राय सर्वोपरी होगी...हर स्त्री को अपना साथी कौन होगा यह तय करने का
अधिकार होगा...किसी की भी जबरद्स्ती...मुखिया की भी नही चलेगी.
(दृष्य बदलता हैं दरबार. सारे टोलीवाले बैठे हैं. ऋषभ हाथ उठाकर
उच्चे स्वर में बोले जाता हैं.)
जो साथी वह तय करेगी वह उसका जिंदगी भर का साथी होगा. उस औरत
पर कोई नजर नहीं डालेगा...डालेगा तो वह जघन्य अपराध होगा. यह नाता पवित्र माना जायेगा.
जानवरों की तरह आदमी और औरते व्यवहार नहीं करेंगे. उनके रिश्ते में गहराई होगी, प्यार होगा और जीवन भर रिश्ता निभाने की कसम उन्हे जोडे रखेगी.
हां...यही विवाह संस्था होगी जो हम सिर्फ हम में नहीं सारी टोलियों
मे कायम करेंगे...मानवी सभ्यता का यही पहला सही कदम होगा.
(सारे अचंभे में ऋषभ की ओर देखते हैं. नाभी अपने स्थान से उठता
हैं-)
नाभी- हां...ऐसी सभ्यता ही हमारी जरुरत हैं. मैं ऋषभनाथ का समर्थन
करता हूं और इस नियम का पालन हो ऐसा आदेश देता हुं!
(दृष्य डिझोल्व होता हैं.)
१६.
(सबेरा.
ऋषभनाथ चल रहे हैं.
पहाड- अरण्य, नदीयां
लांघने के कई पासिंग दृष्य. वे एक छोटी बस्ती के पास आते है जहां कुछ लोग उबडखाबड जमीन
को समतल बनाने की कोशिश में जुटे हैं.
ऋषभनाथ उत्सुकता वश उनके पास जाते हैं.
वे लोग आगंतुक की तरफ दुष्मन मान देखने लगते हैं...जो भी हाथ
में आये हथियार की तरह उठाते हैं)
ऋषभ- मैं दुष्मन नही. अपना मित्र ही समझो.
क्या कर रहे हो?
(लोग आश्वस्त हो जाते हैं.)
एक- हम अनाज उगाने के लिये जमीन तैय्यार कर रहे हैं.
ऋषभ- कैसे उगाओगे अनाज? जंगलों
में भी खाने लायक अनाज के शायद ही पौधे मिलते हैं....
मुखिया- बीज बोया तो पेड उगते हैं...वैसे अनाज भी...हमने चारागाहों
में कुछ ऐसी वनस्पतीयां देखी है जिनके बीज अनाज की तरह काम आते हैं. हमने ऐसे बीज इकठ्ठा
किये हैं...उन्हे बो कर हम कई गुना जादा अनाज पैदा करेंगे...
ऋषभ- मगर इस ढंग से जमीन तैयार करने जाओग तो बख्त लगेगा...
मुखिया- हम दुसरा कर भी क्या सकते हैं?
ऋषभ- आपकी कल्पना अच्छी हैं मगर उसे ढीकठाक से काम में लानी
पडेगी. (जंगल की तरफ देखता हैं.) लकडियां-टहनीयों से जमीं नहीं बनाई जा सकती...उतना
अनाज भी नहीं मिलेगा जो तुम्हारा ..सबका घुमंतु पण खत्म करे...आओ....हम कुछ हल ढुंढते
हैं...(जंगल की ओर मुडता हैं...)
दृष्य डिझोल्व होता हैं
१७.
कैलाश पर्बत.
ऋषभनाथ, बाहुबली एवम भरत
खडे हैं.
कैमरा ऋषभनाथ पर)
ऋषभ- विश्व का सबसे बडा क्रांतीकारी इजाद हो रहा था. अब इन्सान
को शिकार और अनज की खोज में घुमते रहने की जरुरत नहीं थी. मग्र वह सब इतना आसान नहीं
था.
हमने पहले लकडी का हल बनाया...मगर वह जल्दी खराब हो जाता था.
तलवारे बनाने वाले लुहारों से हमने हल के जमीं में घुसने वाले
हिस्से पर लोहे का नुकीला टोप बना दिया.
इन्सान हल खिंचते थे...मैंने बैलों का इस्तमाल शुरु किया...
बहोत बडी जमीं हम खेती लायक बना सके.
बीज बोये..
बारिश आई....मैं वही रुका रहा...कुछ हि दिनों में खेतों में
नन्हे से हर अंकुर उगने लगे...
सर्जन का वह सबसे बडा उत्सव था वह. उस रात हमने जैसे त्योहार
मनाया...
(कुछ दृष्य मिक्स स्वरुप में.)
(कैमरा ऋषभ पर...वह भावविभोर)
हम हिंसा मे मग्न थे. हम जानवरों की शिकार करते थे. किस चारागाह
या शिकार पर किसका हक हैं यह तय करने आपस में लडते थे....मरते थे मारते थे...
जीने के लिये...
अब लगा कि अब इसकी इतनी आवश्यकता नहीं होंगी.
वहां मैं और दो साल रहा. खेती के लिये आवश्यक कई औजार ढुंढे.
फिर हर टोली वालों से मिला. उन्हे खेती की कला सिखाई.
औजार बनाना सिखाया.
औजार बनानेवालों का एक पेशा ही तैयार हुआ.
लोग संपन्न और सुखी होने लगे...
मगर अब भी बहोत सारी खामियां थी...
मैं अब अयोध्या की ओर निकल पडा...हमारे लोगों को भी यह विद्या
सिखाना जरुरी था न!
१८.
ऋषभनाथ घॊडे पर सवार अयोध्या की ओर निकल पडे हैं.
चहरे पर गंभीरता.
अचानक वह पहाडी के नीचे शोर सुनता हैं.
अ. कुछ लोग एक बुढे को पीट रहे हैं.
१. कहां हैं हमारा घोडा?
२. चोर हरामी...बोल नहीं तो मार डालेंगे तुम्हे...
बुढा- (कराहते) मुंझे नही पता...
ब. ऋषभ तेजी से पहाड उतरता हैं.
तलवार खिंच कर उन टोलेवालों को ललकारता हैं.
ऋषभ_ बुढे से क्या लडते हों?
हिंमत हैं तो हम से लडो...
(सब उसकी ओर देखते हैं)
१. - यह आया बेवकुफ...पहले इसे मार गिराओ...इस बुढे का ही साथी
लगता हैं.
(तलवारे खिंचे वे ऋषभ की ओर भागते हैं.
ऋषभ घोडे से उतरता हैं और उनके वार झेलते हुएं दो-तीन जनों को
मार गिराता हैं.
सतर्क होकर बचे टोलीवाले पिछे हंटते हैं नया पैंतरा लेने)
ऋषभ- लडोगे तो मारे जाओगे. मैं ऋषभनाथ...इक्ष्वाकू कुल का वीर.
इस बुढे को क्यों मार रहे हों? क्या अपराध हैं
उसका?
१- सुना हैं बहोत कुछ तुम्हारे बारे में. नई व्यवस्था ला रहे
हो. मगर इस हरामी ने हमारा घोडा चुराया हैं. हमें अपना घोडा नहीं मिलता तबतक हम इसे
पिटते रहेंगे. तुम बीच में मत आओ.
ऋषभ- मगर घोडा तो मुंझे कही दिखाई नहीं देता...
२. छूपाकर रखा होगा इसने कही...
ऋषभ- यह तो तुम्हारा अंदाजा हो गया. सबुत क्या हैं तुम्हारे
पास? और इससे इस तरह पुछताछ करने का
अधिकार तुम्हे किसने दिया? क्या अपने आप को भगवान समझते हो?
और...तुम्हारा घोडा चोरी हो गया इस बात का क्या सबुत हैं तुम्हारे पास?
दबाव से कोई सत्य हाथ नहीं लगता...
१. तो क्या हम हमारे हुए नुकसान को भूल जाय?
ऋषभ- सच दुर्बल के साथ भी हो सकता हैं. पहले तुम लोग यह साबित
करो कि आप का घोडा चोरी हुआ हैं. यदि इसने चुराया हैं तो बताओ कि घोडा कहां और क्यों
छिपाया हैं. तुम्हे तहकीकात करने का और फैसला सुनाने का कोई अधिकार नहीं. अब की बार
नई व्यवस्था होगी...नियम होंगे...आप का घोडा सच ही में चुराया गया हैं तो ढुंढो...इस
वृद्ध पर कहर ढालने की कोई आवश्यकता नहीं.
(ऋषभ आगे बढता हैं. बुढे को उठाता हैं और अपने घोडे पर बिठाता
हैं.)
अब हम जा रहे हैं.
(ऋषभ भी अब घोडे पर)
१. तुम्हारी यह व्यवस्था नहीं...अव्यवस्था हैं. अब तुम जाओ मगर
हम लौटकर आयेंगे...तब इतने कम नहीं होंगे...
(ऋषभ हंसता हैं. घोडा दौडाता हैं)
१९.
संकरे रास्ते से ऋषभ सावधानी से घोडे क लगाम पकडे घाटी चढ रहा
हैं.
वृद्ध अब जरा सावधान हो चुका हैं.
वृद्ध- बेटे, थके
होंगे...मैं अब चल सकता हुं.
ऋषभ- नही बाबा...आप वैसे हो कौन? इस अरण्य में क्या कर रहे थे? आप की बस्ती
कहां हैं?
वृद्ध- इस पहाड को लांघने के बाद दो पहाड पार कर हम यक्षॊ की
खाई मे प्रविष्ट होंगे. मैं वही का हुं.
ऋषभ- हंसता हैं) यक्षों की खाई? सुना तो बहोत हैं मगर किसी ने नहीं देखी. कहते हैं बडे अद्भुत
होते हैं यक्ष. मगर हैं तो यह कल्पना ही.
वृद्ध- जो पता नहीं होता उसके प्रति अद्भूतरम्य कल्पनाओं का
जन्म होना स्वाभाविक हैं. यक्ष एक जमात हैं. किसीसे संपर्क नहीं रखते. खाई में रहते
हैं जहां शायद ही कोइ आता हो.
ऋषभ- क्या आप यक्ष हैं?
वृद्ध- यक्ष ही नहीं यक्षों का राजा हुं...
ऋषभ - फिर आप इस हालात में कैसे?
वृद्ध- (हंसता हैं) शिकार करने गया था. एक हिरन का पीछा करते
रास्ता भटक गया. अचानक मुंझपर हमला हुआ. पकडा गया. बांधकर दुरतक ले जाया गया. मैं जैसे
तैसे छुटकारा पा भाग निकला तो इन जानवरों में फंस गया. लगा था मैं हमारी खाई में अब
कभी लौट नहीं पाउंगा...तुमने बचाया...अब चलो...कुछ दिन हमारे मेहमान बनो...तुम्हारे
ऋण से मुक्त होने का मौका दो.
ऋषभ- आप का नाम जान सकता हुं?
वृद्ध- मैं दंडपानि यक्ष...यक्ष कुबेर का पोता....
ऋषभ- (अचंभित) हमें लगता था कुबेर काल्पनिक हैं. यह यक्ष भी
काल्पनिक हैं. कहां कहां से कल्पना कर लेते हैं लोग....
(दंडपानि हंसता हैं.
ऋषभ पहाड लांघता हैं.
समय परिवर्तन दृष्य से दिखता हैं.
२०.
कंटिन्यू.
एक खाई में दोनो उतर रहे है.
अद्भुतरम्य महौल. धुआं...नुकीले पर्बत और गहन झडियां...नाले....
और एक अजीब दिखने वाली बस्ती.
दोनो नदी लांघकर बस्ती में प्रविष्ट होते हैं.
बस्ती वाले अचंभे से देखते हैं और अचानक शोरगुल मचता हैं.
दंडपानी के नाम से नारे लगते हैं.
उसे और ऋषभ को एक बडे निवास में लिया जाता हैं.
दो युवा सुंदरियां दोनों का ख्याल रखती हैं.
२१.
दंडपानी के स्वागत में शाम खुशियां मनाई जा रही हैं.
सारे ऋषभनाथ की ओर उत्सुकता पुर्वक देख रहे हैं.
दंडपानी उठकर संबोधि करता हैं-
दंडपानी- यह इक्ष्वाकू कुल का महावीर, महाबुद्धीशाली ऋषभनाथ ने मेंरी जान बचाई..मुंझे यहां तक वापिस
लाया...
(जनता में खुशियों के नारे)
मैं यक्षों की ओर से उनका आभार प्रकट करता हुं...मगर शब्द काफी
नहीं होंगे. मैं अपनी प्रिय बेटियां...यशस्वती और सुनंदा उन्हे अर्पण करता हुं.
(दोनो सुंदरियां शरमाती एक दुसरे से कुछ गुफ्तगू करती हैं.
लोग हर्षोल्लासित)
ऋषभ- ( हाथ उठ खडा होता हैं.) लडकियों को अर्पण नहीं किया जाता.
वे वस्तू नहीं हैं. उनकी मर्जी के विरुद्ध कुछ नहीं हो सकता यह नियम हैं. आप पहले उनकी
राय पुछो.
दंडपानी- (अपनी कनुयाओं की ओर देख कर) यह युवा बडा अजीब हैं.
यहां औरते जमात की मिल्कीयत होती हैं. उनकी कोई राय नहीं होती.
ऋषभ- वे गुलाम नहीं हैं. उनसे पहले पुछो....
दंडपानी- ठीक हैं. बोलो यशस्वती..सुनंदा..क्या यह युवा तुम्हे
पसंद हैं?
यशस्वती- (आगे आकर) अब हमे पुछ ही लिया हैं तो पहले ऋषभनाथ ही
बताये की क्या उन्हे हम दोनो पसंद हैं?
ऋषभ- हां. मेरी मां तुम्हे देखकर खुष होंगी...
सुनंदा- हम आप की माता से मिलने उत्सूक हैं.
ऋषभ- हामी भरने का यह तरीका अच्छा लगा...
दंडपानी- तो यह तय हैं अब...मेरी दोनो कन्याएं तुम्हारी जीवन
संगिनी होगी. यक्ष और इक्ष्वाकू हमेशा के लिये मित्र हो जायेंगे...
(लोग खुशी के मारे झुम उठते हैं)
२२.
अयोध्या.
अयोध्या की चारो तरफ अब खेत खलिहान खिल्र रहे हैं. खेतों में
लोग कुछ न कुछ काम कर रहे हैं.
सुनंदा और यशस्वती अपने पुत्र बाहुबली और भरत के साथ खेल रही
हैं.
और नाभी खेतों में टहल
रहे हैं. ऋषभ अब बडा हो चुका हैं तो नाभीराज वृद्ध.
नाभी- सब कुछ बदल गया हैं....चमत्कार हैं यह ऋषभ....
ऋषभ- नहीं पिताजी...अब बहोत बदलना बाकी हैं...सारी टोलियों को
यह जीने की कला सिखानी हैं. व्यवस्था के मायने सिखाने हैं. अब भी कई टोलियां इस परिवर्तन
से संतुष्ट नहीं. वे हमें पाखंडी कहते हैं. उनका हदय परिवर्तन करना होगा...
नाभी- मगर हमें उनसे क्या?
ऋषभ- मै सारी मानवजाति में परिवर्तन लाना चाहता हुं. जानवरों
को इन्सान बनाना चाहता हुं. मानवता का यह नया रस्ता हैं. इसमें अब भी खामियां हैं मगर
यही रास्ता सबसे बेहतर हैं.
(नाभी ऋषभ की ओर देखता ही रहता हैं. डिझोल्व.)
२३.
रात.
अ. अपने शयन कक्ष में ऋषभ दोनो पत्नियों और बच्चों के साथ गहरी नींद सो रहा हैं.
ब. टोलियां तेजी से अयोध्या के ओर बढ रही हैं.
रास्ते में खेतों मे फसल जला रहे हैं.
क. दरवाजा खटखटाया जाता हैं.
ऋषभ जागता हैं. उठकर दरवाजा खोल देता हैं.
ऋषभ- क्या बात हैं?
पहरी- अभी खबर आई हैं कि दस बारा टोलियां अयोध्या की तरफ जंग
छेडने आ रही हैं.
ऋषभ- ऐसे? ठीक हैं. सब सेनानियों
को जगाओ...तट पर सारी सेना दो घटिका में मौजुद होनी चाहिये. मैं तैय्यार होकर आता हुं.
(ऋषभ मुडता हैं)
२४.
सुबह.
अयोध्या को चारो तरफ से घेर लिया गया हैं.
अयोध्या के तट द्वार बंद हैं.
तटपर सेना दुबककर तीर-कमान थामे बैठे हैं.
टोलियों के मुखिया अस्वस्थ हैं.
एक- हम हमला करेंगे...जला डालेंगे अयोध्या को...
दुसरा- मगर लडने वाला तो सामने कोई दिख नहीं रहा हैं.....यह
क्या चाल हैं?
२. तट का दरवाजा खुलता हैं.
अकेला ऋषभनाथ बाहर आता हैं. कोई हथियार नहीं.
टोलीवाले असंमजस में.
ऋषभनाथ हाथ उठाता हैं.
ऋषभ- अचानक हमला कायरों का लक्षण हैं. मुंझसे बात करो...मैं
निहत्था हुं.
१. (आगे आकर) - हम तुमसे क्यों बात करे? पाखंडी....समाज की चलती आई परंपरा मिटाकर यह कौन से घिनौने अपराध
कर रहे हो?
ऋषभ- कौन सी परंपरा? मुर्खता
को चलते देना क्या अच्छी बात हैं?
२. मुर्खता? मुर्ख
तो तुम हो. शिकार करना...लडना-मरना मर्दों की परंपरा रही हैं. तुम इस परंपरा को तोड
रहे हो...आप लोगों का जिने का कोई अधिकार नहीं...
ऋषभ- जिना और जिने देना यह मनुष्यता की सही परंपरा हैं. सुनो...शिकार
करते हो...सृष्टी के जिंदा हिस्से को मारते हो...पेट पालते हो. मगर सृजन करने की ताकद
तुममें नहीं. यह किसान मैंने बनाया वह जमीन से अनाज उगाता है...किसी को मारे बगैर जिने
के साधन बनाता हैं. हमारा लुहार.सुतार औजार बनाता हैं किसी को मारने नहीं. सजन के लिये.
यही सभ्यता हैं...यहीं मानवता हैं.
आप लोगों को न्याय का नहीं पता...मगर देवताओं का न्याय यहां
होता हैं.
किसी से अन्याय ना हो यही न्याय हैं.
आप लोग यहां मुर्खों की तराह हम पर हमला करने आये हो यह न्याय
नहीं...
और हम कायर भी नहीं.
तटपर देखो...इतने शर हैं हमारी सेना के पास कि आप लोह हथियार
उठाने से महले मार दिये जाओगे...
मगर मैं ऋषभनाथ ऐसा नहीं चाहता...
सब को जिने का अधिकार हैं...
(दृष्य बदल.
ऋषभनाथ दुसरी टोली को संबोधित कर रहा हैं और बस्ती में. उम्र
परिवर्तन)
औरते टोली कि मिल्कियत नहीं की जो चाहे उसे भोगे. औरतें किसी
कि मिल्कियत नहीं...पती की भी. वे आदमी की तरह स्वयंभू हैं. सिर्फ प्रेम का धागा उन्हे
जोडता हैं.
(दृष्य परिवर्तन)
न्याय इन्सान का नियम हैं...जानवरों का नहीं.
लिखने कि कला मैंने विकसित की हैं ताकि हम हमारे जुल्म और न्याय
की कहानियां लिख पाये...
कभी कविता तो कभी हमारी कहानियां लिखी जाये...
हमने क्या उत्पन्न किया और क्या खोया इसका हिसाब लिखा जाये...
(दृष्य परिवर्तन. कोई और टोली.)
हमें किसी और को जितने की जरुरत नहीं.
हमें अपने आप पर जित पानी हैं.
हमें जिन होना हैं.
यहीं मानवता का श्रेष्ठ धर्म हैं.
(ऋषभनाथ अब अयोध्या के तटद्वार के बाहर उन्ही हमलावरों के सामने
खडे हैं.)
आप लोग मुंझे मारना चाहते हो तो लो, मैं आप के समक्ष निहत्था खडा हूं.
(विनम्रतापुर्वक गर्दन झुकाएं बैठ जाते हैं.
टोली प्रमुख सकते में आ जाते हैं.)
१- हम आप को कैसे मार सकते हैं प्रभू....(हाथ जोड बैठ जाते हैं)
२. हम निरे मुर्ख हैं. हमें आपके दिखाए रास्ते पर चलना हैं.
(ऋषभ उन्हे गले लगाता हैं)
२५.
ऋषभनाथ वृद्ध हुए हैं. कही चलने को तैयार हैं.
भरत एवं बाहुबली सामने विनम्रतापुर्वक खडे हैं.
भरत- पिताजी, आप
कहां जा रहे हो?
ऋषभ- पता नहीं. यह यात्रा अंदरुनी हैं...मैं एक बडे संग्राम
में कुदने जा रहा हुं.
बाहुबली- हमें आप की जरुरत हैं पिताजी...
ऋषभ- किसिको किसीकी जरुरत हो तो समझ लेना वह नासमझ हैं.
भरत- हम क्या करें पिताजी?
ऋषभ- चक्रवर्ती बनो...मेंरा संदेश विश्व में फैलाओ!
बाहुबली- और मैं?
ऋषभ- अपने आप पर जित हासिल करो...ऐसे सम्राट बनो बाहुबली कि
सारे साम्राज्य धूल की तरह व्यर्थ नजर आये. चलो, मैं चलता हुं.
(ऋषभ चल देता हैं.)
२६.
(कैलाश की चोटी. हवाएं गुंज रही हैं.)
ऋषभ- भरत चक्रवर्ती हो चुका हैं. बाहुबली भरत को चक्रवर्ती नहीं
मानता. अजीब समस्या हैं.
बाहुबली- क्यों मानू मैं इसे चक्रवर्ती जब इसने सबको हराया मगर
मुंझे हराना बाकी हैं.
ऋषभ- तुमने अपने आप को नहीं जिता...तुम हारे हुए ही हो...
भरत- यह जलता हैं मुंझसे. मेरे बाहुबल से...
बाहुबली- कौन किस से जलता हैं...दिखाउंगा तुम्हे...
ऋषभ- (खेद से) मैं "मैं" से मुक्त होना चाहता हुं.
मोक्ष पाना चाहता हुं. अब यह बाते मेंरी समझ में नहीं आती. मगर याद रहे...आप लडते रहोगे
तो मैने बनाई व्यवस्था चकनाचूर हो जायेगी. आप एक दुसरे की जान के दुष्मन बन बैठे हो...कोई
शैतान आप दोनों को इन्सानियत की नींव खत्म करने प्रोत्साहित कर रहा हैं. मैंने स्थापित
किया समनों का धर्म इससे नहीं टिक पायेगा. खैर...जाओ...कौन चक्रवर्ती इसका फैसला आप
दोनों ही को करना हैं.
(ऋषभ मुडता हैं और अपने स्थान पर बैठ ध्यान में मग्न हो जाता
हैं. दोनो भाई एक दुसरे की तरफ गुस्से से देकह्ते हुए पहाड उतरना शुरु कर देते हैं.)
२७.
अयोध्या का मैदान.
भीड जमा हैं...शोर मच रहा हैं.
ऐलान- जो इस कुश्ती में जितेगा वही चक्रवर्ती कहलायेगा....
(शोर
बाहुबली और भरत कुश्ती लडने की तैय्यारे मे एक दुसरे को ललकार
रहे हैं.)
भरत- दुनिया को हराया हैं मैंने....तुम क्या चीज हो...
बाहुबली- (झपट पडता हैं) मैं कोरी बाते नहीं करता भरत...तुम्हे
मैं आस्मान दिखाउंगा...
(दोनो कुश्ती शुरु करते हैं.
दोनो लहुलुहान हो नये नये पैतरे इस्तमाल करते हैं.
कुछ ही दे बाद बाहुबली भरत को ऐसे पेंच में लेता हैं की भरत
की गर्दन उसके बलिष्ठ हाथों की जकड में आ जाती हैं.
वह गर्दन दबा ही देता तो उसकी आखो के सामने ऋषभनाथ की प्रतिमा उभरती
हैं.
भरत व्याकूल हो खुद को छुडाने की कोशिश में हैं.
बाहुबली उसे जमीं पर पटक देता हैं और खडा हो जाता हैं.)
बाहुबली- मैं मेरे गुस्से को जितना चाहता हूं. भरत...तू चक्रवर्ती बना रह. यह भूमी भारत
नाम से अवश्य प्रसिद्ध हो. मैं अपने आप को जित कर पिताजी की तरह जिन होना पसंद करुंगा...तुम
विश्व पर राज करो...मैं अपने आप पे राज करुंगा....
(यकायक वह मुडता हैं. भीड के बीच से रास्ता बनाये तट-द्वार से
बाहर जंगल की तरफ जाता हैं.
कट
ऋषभनाथ आंखे खोल हंसते हैं और आशिर्वचन में हाथ उठाते हैं.
एंड टायटल्स)